सोमवार, 7 सितंबर 2009

अफेसिया भाग २

कुछ मरीज एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का उपयोग कर बैठते हैं। (परा-शब्द/पेराफेजिया)। कहना चाहते थे - मुझे चाय चाहिये - मुंह से निकलता है मेरे... मेरे .... को ... वह ... वह ... दूध... नहीं ... दूध..... ।
प्रायः यह पराशब्द, इच्छित शब्द की श्रेणी का होता है। कभी-कभी असम्बद्ध शब्द या अनशब्द (नानवर्ड) भी हो सकता है।
सुनकर समझने में कमी - ऐसा लगता है मानों मरीज ऊंचा सुनने लगा हो। बहरा हो गया हो, लेकिन ऐसा होता नहीं। कान अच्छे हैं, पर दिमाग समझ नहीं पाता। आप बोलते रहे, समझाते रहे, मरीज आपकी तरफ भाव शून्य सा टुकुर-टुकुर ताकता रहता है। या फिर क्या-क्या, या हाँ-हाँ कहता है पर समझता कुछ नहीं । बीमारी की तीव्रता कम हो तो कुछ सीधी-सादी सरल सी बातें, जो एक दो शब्द या छोटे वाक्यों के रूप में, धीमी गति से स्पष्ट स्वर में, हावभाव के साथ बोली गई हों, समझ में आ सकती हैं। लम्बे लम्बे, कठिन, वाक्य जो जल्दी-जल्दी, शोरगुल के मध्य बोले गये हों समझ में नहीं आते।
पढकर समझने में कमी - भाषा के चिन्ह चाहे ध्वनियों के रूप में कान से दिमाग में प्रवेश करें या आंखों के रास्ते अक्षरों के रूप में, अन्दर पहुंचने के बाद उनकी व्याख्या करने का स्पीच-सेन्टर एक ही होता है। अतः वाचाघात के कुछ मरीजों में आंखों की ज्योति अच्छी होने के बावजूद पढने की क्षमता में कमी आ जाती है।
लिखकर अभिव्यक्त करने में दित
उद्‌गारों की अभिव्यक्ति चाहे मुंह से ध्वनियों के रूप में फूटे या हाथ से चितर कर, उसका स्रोत मस्तिष्क में एक ही होता है। उक्त स्रोत में खराबी आने से वाचाघात/अफेजिया होता है। इसके मरीज ठीक से लिखना भूल जाते हैं। लिखावट बिगड जाती है। मात्राओं की तथा व्याकरण की गलतियाँ होती हैं। लिखने की चाल धीमी हो जाती है। पूरे-पूरे वाक्य नहीं बन पाते।

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